ज़िन्दगी फुटपाथ पर

अमिताभ दीक्षित ,लिटरेरी एडिटर-ICN ग्रुप

मेरे छू देने से जो सरासरा सी उठती है

तमन्ना है कि उसके जानिब कोई अफसाना कहूं

कुछ ऐसी बात बहुत नजदीक से छू ले उसे

कुछ ऐसे लफ्ज़ जो जा बैठे हैं उसकी पलकों पर

पंछियों के शोर से सुबह की सुगबुगाहट  आए

नींद अभी बाकी हो लैंप पोस्ट  बुझ जाए

और जिंदगी  उनींदी सी करवट बदल के सो जाए……….थोड़ी देर और………..

थोड़ी देर बाद फिर

ताके यूं टुकुर टुकुर डूबते तारों की चमक

आंखें मिचियाए बुरा  सा  मुंह बना के उठ बैठे

फेंक  के चादर कूद चारपाई से

तेज कदमों से गली के नुक्कड़ पर

आंख  झपकाते  हुए नल की तरफ भाग चले

थोड़ी देर और राख से दांत रगड़ने का “चींचीं”

थोड़ी देर और फुटपाथ पे कुल्लों का गुडुप

धो के मुंह हाथ फिर चाय बनाने की कोशिश

कोयले भर भर के अंगीठी का यूँ  धौंका  जाना

दहकते शोलों की आंच में हाथ का सेंका  जाना

चाय बनाना पीना और फिर चल पड़ना

अगली सुबह की चाय की खातिर किसी चौराहे पर

शाम तक के सफर के लिए किसी रास्ते की तलाश

जी हां यह वही जगह है जिंदगी जहां सांस लिया करती है

पैदा होती है उमर भर जाती है मर भी जाती है

इसकी साँसे मगर यहां फिर भी चला करती हैं

जिंदगी हर जगह फुटपाथ पे बस यूं ही गुज़र जाती है

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